राजयक्ष्मा तपेदिक, क्षयरोग तथा टी.बी। के नाम से जाना जाता है। राजयक्ष्मा एक क्षयज रोग है। जो कि हलका बुखार, भूख का न लगना, रात्रि में पसीना आना तथा शरीर के वजन की कमी से जाना जाता है।
आयुर्वेद में इसके चार कारण माने गए हैं।
1। वेग रोध - वायु, मल, मूत्र, पुरीष आदि अधारणीय वेगों को रोकना।
2। क्षय – अति मैथुन, भूखा रहना, रक्त का निकल जाना आदि शारीरिक तथा ईष्र्या, शोक, भय आदि मानसिक शरीर को क्षीण करने वाले कारण।
3। साहस - शरीर की शक्ति से अधिक कार्य करना।
4। विषमाशन - अनुपयुक्त ढंग से आहार का उपयोग करना।
1। पुराने रोगों में यदि कंधे व पार्श्व में दर्द, हाथ पैरों में जलन तथा ज्वर ये तीन लक्षण अधिक दिन तक मिलें तो राजयक्ष्मा समझना चाहिए।
2। शरीर सूखता जा रहा हो, वजन बराबर कम होना।
3। बिना कार्य के थकावट मालूम होना, सांयकाल में ज्वर की बढ़ोत्तरी, नाड़ी का हलकापन, व तेजी, अकारण ही बार-बार जुकाम का होना, रात में पसीना आना, मांस खाने व मैथुन की इच्छा, स्त्रियों में रजोरोध। ये लक्षण प्रायः राजयक्ष्मा में मिलते हैं।
4। सश्रत ने छह लक्षण स्वीकार किए हैं - अरुचि, ज्वर, श्वास, खांसी, खून की उल्टी होना तथा स्वर का बदल जाना।
चरक ने 11 लक्षणों को माना है - वात प्रकोप से तीन कंधों एवं पार्श्व में जलन, पीड़ा व संकोच, तथा स्वर भेद।
पित्त प्रकोप से तीन - ज्वर, दस्त तथा खून की उल्टी होना।
कफ प्रकोप से पांच - भोजन में अरुचि, खांसी, श्वास, सिर दर्द, कफ का निकलना।
आधुनिक विज्ञान में मानव में इस रोग का प्रधान कारण यक्ष्मा दंडाणु (माइक्रोबैक्टीरीयम टयबरक्लोसिस) माना जाता है। धूप, धूल भरा गंदा वातावरण, चिंता, अधिक मेहनत करना, दरिद्रता, छाती एवं पीठ पर चोट का लगना आदि सहायक कारण माने जाते हैं। साधारणतया मानवीय यक्ष्माणु का प्रवेश श्वास मार्ग से होता है। मानवीय यक्ष्माणु का फैलाव थूक के द्वारा ही होता है।
यक्ष्मा रोगी के थूक के सूक्ष्म कणों से दूषित वायु के सेवन से ताजे, सबल जीवाणु सीधे फेफड़ों में पहुंचकर रोग उत्पन्न करते हैं। थूक के सूखे कणों में उपस्थित जीवाणु प्रकाशहीन स्थान में आठ-दस महीनों तक रोग फैलाते रहते हैं किंतु सूर्य के प्रकाश में बहुत जल्दी कुछ घंटो में मर जाते हैं।
इनके लक्षण को चार भागो में बाटा गया है।
1। फेफड़ों से - जुकाम, खांसी, श्वास, गाढ़ा कफ, रक्त खून की उल्टी होना आदि।
2। विषमयता जन्य - ज्वर, भार में कमी, नाड़ी की तेज गति, रात में पसीना आना, बल का घटना, भूख न लगना आदि।
3। परावर्तित - दर्द, गले के स्वरयंत्र में जलन, चुभन तथा उससे खांसी आदिं।
4। पूयजनक जीवाणु से -श्वास में दुर्गंध, सूजन, सड़न, ज्वर आदि,
ये ज्वर के मुख्य लक्षण हैं। शाम को चढ़ता है प्रातः उतर जाता है। कभी-कभी संतत, सतत प्रकार का भी मिलता है प्रायः सभी रोगियों में यह मिलता है।
यक्ष्मा की चिकित्सा में औषधियों की अपेक्षा विश्राम व बलपुष्टिकारक खाने-पीने का अधिक महत्व है। रोगी को प्रचुर मात्रा में दूध, वेजिटेबल सूप, फल, मक्खन, घी आदि का सुस्वाद, भोजन देना चाहिए। कट, तीक्ष्ण पदार्थ, सरसों के तेल, लाल मिर्च का परहेज कराएं। लहसुन प्रचुर मात्रा में दें।
आयुर्वेद में राजयक्ष्मा के लिए स्वर्ण के योगों का विशेष महत्व दिया गया है
1। स्वर्ण बसंतमालती रस 120 ग्राम प्रातः सायं मधु के साथ दें। यह राजयक्ष्मा एवं आंत्रक्षय दोनों में काम आती है।
2। सर्वांग सुंदर रस 120 मि। ग्राम प्रातः सायं शहद के साथ दें।
3। राज मुंगाक रस 120 मि ग्राम प्रातः सायं शहद के साथ दें।
4। वृहत लक्ष्मी विलास रस 120 मि। ग्राम शहद के साथ, राजयक्ष्मा में जिस अवस्था में जुकाम रहता है।
5। जयमंगल रस 120 मि.ग्राम प्रातः सायं शहद मिलाकर चटाएं। राजयक्ष्मा तथा आंत्र क्षय में जब पतले दस्त आते हैं तब इसका प्रयोग लाभकारी होता है।
6। चतुर्मुख रस 120 मि.ग्राम प्रातः सांय शहद मिलाकर चटाएं। राजयक्ष्मा के साथ पांडुरोग, अपस्मार आदि रोग हो तब इसका प्रयोग करें।
7। हेमगर्भ रस 120 मि.ग्राम शहद के साथ जब राजयक्ष्मा के साथ दमा एवं अपचन हो।
8। हेमगर्म पोटलीरस 120 मि.ग्राम राजयक्ष्मा एवं आंत्रक्षय में जब दस्त अधिक हो।
9। मुक्तापंचामृत रस 120 मि.ग्राम दिन में दो बार शहद से चटाएं।
10। श्रृंग भस्म, अभ्रक भस्म, कपर्दिका भस्म, कुलीर अस्थि भस्म, प्रवाल भस्म, मुक्ताशुक्ति भस्म रोग की अवस्थानुसार लेकर अनुपान में शहद, वासावलेह, अमृतप्राश, कुष्मांड रसायन, च्यवनप्राश अवलेह, ब्राम रसायन, मेनोल अवलेह, केशरी जीवन के साथ दें।
11। सितोपलादि तथा तालीशादि चूर्ण 1-2 ग्राम शहद के साथ चटाएं।
12। यक्ष्मारिलौह 120 मि.ग्राम शिलाजत्वादि लौह 120 मि.ग्राम शहद के साथ दें।
13। कांचनाभ्र या वृहत कांचनाभ्र 120 मि.ग्राम शहद के साथ दें।
14। श्वास कास चिंतामणि रस 120 मि.ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार चटाएं।
15। मधुमेहजन्य यक्ष्मा में वृहत बंगेश्वर रस, बसंत कुसुमाकर रस 120 मि। ग्राम जामुन की गुठली का चूर्ण व विल्वपत्र स्वरस से दो बार दें।
16। शिवा गुटिका 500 मि.ग्राम ग्राम दूध में मिलाकर दो-तीन बार दें।
17। वीर्य क्षय की अवस्था में - मृगांक चूर्ण, वृहत चंद्रामृत रस, वृहत पूर्णचंद्र 120 मि। ग्राम दिन में दो बार दें।
18। कफ निकलने में कठिनाई हो तो यवक्षार 2 ग्राम सितोपलादि चूर्ण में मिलाकर दें।
19। वृहत सर्वज्वरहर लौह, चंदनादि लौह, प्रवाल भस्म ज्वर शांति के लिए प्रयोग करें।
20। द्राक्षासव, द्राक्षारिष्ट 15-30 मि.लि। सम भाग जल मिलाकर भोजन के बाद दें।
21। खांसी की अधिकता में वृहतचंद्रामृत रस सितोपलादि चूर्ण में मिलाकर शहद से चटाएं। अगर पार्श्व शूल हो तो उसी में श्रृंग भस्म 120 मि। ग्राम मिलाकर दें।
22। वासकासव, वासारिष्ट, कनकासव रोगी की दशानुसार बराबर पानी मिलाकर दें।
23। धान्वन्तर गुटिका एक ग्राम की मात्रा में जीराक्वाथ के साथ दिन में दो बार दें।
24। बकरी का दूध, घी राजयक्ष्मा के रोगी के लिए लाभकर है।
25। शुद्ध लाख का चूर्ण 1-2 ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार चटाएं।
26। गिलोय के तने का क्वाथ 10-20 मि.ली। पिप्पली चूर्ण 1 ग्राम के साथ दिन में तीन बार दें।
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