प्रमेह रोग क्या है | प्रमेह के कारण एवं इसके प्रकार

जिस रोग में बार-बार अधिक मात्रा में गदला मूत्र निकले, उसे प्रमेह कहते हैं। प्रमेह की उत्पत्ति में तीनों दोष वात, पित्त एवं कफ कारण हैं। मेद, रक्त, शुक्र, जल, वसा, लसिका, मज्जा, रस, ओस एवं मांस ये दूष्य है। दोष एवं दूष्य के समान रहने पर उनके विशेष मिलने के कारण, मूत्र के वर्ण, गंध, स्पर्श मात्रा में कम, मात्रा में अधिक आना, गाढापन, पतलापन आदि।

प्रमेह के प्रकार:

प्रमेह 3 प्रकार के होते है।

1. कफज प्रमेह

  • उदकमेह - साफ, अधिक सफेद एवं ठंडा, गंध रहित पानी के समान तथा कुछ चिकनापन युक्त मूत्र का त्याग करना।
  • इक्षुमेह - ईख के रस के समान मधुर मूत्र का त्याग करना।
  • सांद्रमेह - मूत्र को रखने पर उसमें तलछट बैठ जाती है।
  • सुरामेह - मूत्र शराब की तरह ऊपर से साफ नीचे सघन होता है।
  • पिष्टमेह - मूत्र त्याग के समय शरीर रोमांचित हो जाता है, मूत्र सफेद मात्रा में अधिक, पीवी के समान मिला हुआ आता है।
  • शुक्रमेह - रोगी शुक्र से मिश्रित मूत्र का त्याग करता है।
  • सिकतामेह - मूत्र में रेत के छोटे-छोटे कण मिलते हैं।
  • शीतमेह - मूत्र मधुर एवं अत्यंत शीतल होता है।

    बार-बार मूत्र त्याग होता है।

  • शनैमेह - रोगी धीरे-धीरे मंद वेग से मूत्र त्याग करता है।
  • लालामेह - रोगी चिकना, तंतुयुक्त, लालारस के समान मूत्र का त्याग करता है।

2. पैतिक प्रमेह

  • क्षारमेह - मूत्र का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, क्षारयुक्त जल के समान होता है।
  • नीलमेह - मूत्र का वर्ण नीलाभ होता है।
  • कालमेह - मूत्र स्याही के समान कालापन लिए होता है।
  • हारिद्रामेह - मूत्र कटु, गर्म हल्दी के समान पीला होता है एवं जलन होती है।
  • मंजिष्ठमेह - मूत्र बदबूदार, रंग में मंजीठ के समान होता है।
  • रक्तमेह - रोगी बदबूदार, गरम, लवणयुक्त, लाल वर्ण का मूत्र त्याग करता है।

3. वातिक प्रमेह

  • वसामेह - गंध वर्ण में वसा के समान अथवा वसा मिश्रित मूत्र का त्याग करता है।
  • मज्जामेह - गंध, रंग आदि में मज्जा के समान मूत्र का त्याग करता है।
  • क्षोद्रमेह - कषाय, मधुर, रूखा, मूत्र का त्याग बार-बार करता है।
  • हस्तिमेह - रोगी मतवाले हाथी के समान निरंतर बिना रुके लसिकायुक्त तथा अधिक मूत्र का त्याग करता है।
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