पित्ताश्मरी या पित्त की थैली की पथरी | Gallstones in Hindi

पित्ताशय में पथरी किन कारणों से बनती है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। परंतु प्रायः तभी बनती है जब पित्त गाढा हो जाए और अधिक देर तक पित्ताशय में रहे। श्लैष्मिक कला के टुकडे पर अथवा कीट समूह पर पित्त में से अश्मरीजनक कण अलग होकर चिपक जाते हैं। ये एकत्रित होते-होते शनैः शनैः अश्मरी बन जाते हैं।

अधिक वसा या अंडे आदि खाने से रक्त में अश्मरीजनक कण कोलेस्ट्रोल अधिक बनते हैं। ये कण गर्भावस्था में तथा उपवृक्क और डिंब ग्रंथियों के प्रभाव से अधिक बनते हैं। अतः यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में दुगनी संख्या में पाया जाता हैं। विशेषकर कई बार गर्भ धारण के बाद अर्थात् 36-45 वर्ष की आयु में ही अधिक होता है। 15 वर्ष की आयु से पूर्व बहुत कम देखा गया है।

पित्त की थैली की पथरी के लक्षण

पित्ताश्मरी के बनते समय और इससे पूर्व अजीर्ण के लक्षण उपस्थित होते हैं, कभी-कभी बीच-बीच में मृदु पित्ताशय शूल के लक्षण प्रकट होते रहते हैं। वस्तुतः ये लक्षण स्पष्ट होने लगते हैं। जब तक पित्ताश्मरी पिताशय में रहती है कोई विशेष लक्षण उत्पन्न नहीं करती। परंतु जब यह अश्मरी स्थान से सरक कर पित्त स्रोत में आकर अटक जाती है तो बिना किसी विशेष स्पष्ट कारण के पीड़ा आरंभ हो जाती है। अथवा कभी-कभी बहुत चलने के बाद या भारी भोजन के पश्चात पीड़ा होने लगती है।

यह पीड़ा कुछ देर रहकर नष्ट हो जाती है। कभी जल्दी दूर हो जाती है, कभी देर से परंतु पुनः होती है। इसका काल निश्चित नहीं, कभी शीघ्र होने लगती है और कभी बहुत दिनों के बाद। जब अश्मरी कहीं पित्तप्रणाली में रुक जाए तो अत्यधिक पीड़ा होती है और यही पित्ताश्मरी का वास्तविक लक्षण है। यह शूल प्रायः रात के समय अकस्मात आरंभ होता है। पीड़ा आरंभ में कौड़ी प्रदेश या पित्ताशय प्रदेश में प्रतीत होती है और पीछे पृष्ठ की ओर अथवा दाएं कंधे की ओर जाती है या सारे उदर में फैलती होती है।

कभी-कभी पीड़ा अकस्मात् आरंभ न होकर शनैः-शनैः बढ़ती है यह शूल इतना तीव्र होता है कि रोगी को बेचैन कर देता है। रोगी छटपटाता रहता है। पित्ताशय प्रदेश बहुत मृदु होता है, हाथ लगाने से पीड़ा और भी बढ़ जाती है। यदि उल्टी हो जाए तो कुछ शांति प्रतीत होती है। कुछ समय रहकर शूल शांत हो जाता है। यह शांति तब होती है जब पित्ताश्मरी किसी प्रकार पित्तप्रणाली से आगे निकल जाती है।

शूल का अकस्मात् आरंभ होना और अकस्मात् ही बंद हो जाना पित्ताश्मरी का विशेष लक्षण है। शूल का समय निश्चित नहीं। कभी दो-चार घंटे रहता है और कभी-कभी तीन-तीन या चार-चार दिन या इससे भी अधिक चलता रहता है। यदि कई अश्मरियां होती हैं तो बार-बार शूल होता रहता है।

यदि एक ही अश्मरी हो तो पित्तप्रणाली से उसके निकल जाने पर शूल शांत हो जाता है। प्रायः अश्मरियां एक से अधिक होती हैं, अंतः पीडा पुनः पुनः होती रहती है। पित्ताश्मरी के बाद पित्ताशय शोथ हो जाता है जिससे स्थानिक पीड़ा और ज्वरादि लक्ष्ण चार-पांच दिन बाद तक रहते हैं। कभी पीड़ा कभी बहुत कामला भी हो जाता है या नहीं भी होता। शूल के दिनों में पेट की मांसपेशियां दृढ़ और तनी हुई होती हैं इसलिए यदि पित्ताशय बढ़ा हुआ हो तो भी छूने से प्रतीत नहीं किया जा सकता है।

कई बार ऐसा होता है कि पित्ताशय से अश्मरी निकलकर पित्ताशय की नली में रुक जाती है या पित्तप्रणाली में आकर रुक जाती है। पित्ताशय की नली में रुकने के कारण पित्ताशय बहुत बढ़ जाता है और वहां एक अर्बुद-सा उठा प्रतीत होता है। जब अश्मरी पित्तप्रणाली में रुक जाती है तो केवल पीड़ा ही नहीं बनी रहती, अपितु पीलिया भी हो जाता है तथा बुखार हो जाता है। यदि अश्मरी से सारा रास्ता न रुके तब पीलिया साधारण होता है।

पित्त की थैली की पथरी में घरेलु इलाज

  • पित्त की पथरी को घोलकर निकाले या बनने से बिल्कुल बंद कर दें, ऐसी दवाई आज तक नहीं मिली है।
  • रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ाने वाली वस्तुएं अंडा, वसा आदि का सेवन नही कराएं। और साधारण व्यायाम करते रहे।
  • इस दर्द में अगस्ति सूतराज रस, वेदनांतक रस का सेवन आधी-आधी रत्ती की मात्रा में एक-एक घंटे पर दर्द के बंद होने के लिए बार-बार कराया जाता है।
  • उल्टी को रोकने के लिए आरोग्यवर्धिनी, कुमुदेश्वर रस दवा देनी चाहिए।
  • इस दवा में पित्त की थैली में से पित्त को आंत में डालने का गुण होता है जिसके कारण उल्टी एवं दर्द में आराम मिलता है। साथ में बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े चूसने को देते हैं।
  • पित्त की थैली की सूजन एवं जलन को कम करने के लिए उस जगह सेक करना, प्याज, लहसुन या सरसों की पुल्टिस या हलका दस्त कराना लाभ देने वाला है।
  • प्याज का रस आधा–आधा तोला एक एक घंटे पर पिलाते रहना चाहिए।
  • कुटकी का चूर्ण या करेले का रस देने से तेज दर्द में आराम मिलता है।
  • कुमारी आसव, द्राक्षासव से भी लाभ होता है।
  • तेज खटाई, तंबाकू का सेवन, तंग वस्त्र पहनना, कमर पर धोती कसकर बांधना हानिकारक है।
  • बहुत ज्यादा घी, तेल मैदे के बने पदार्थ अधिक गुड़ और शक्कर सब हानिकारक हो सकता है।
  • हलका सुपाज्य भोजन तथा व्यायाम करना चाहिए।
  • कद्दू, परवल, तोरई, शलजम आदि सब्जियां, अदरक, लहसुन, जीरा, अजवाइन, मसाले गौदुग्ध, मडा, दही, घी, अनार, मौसमी, पपीता, सेव आदि हितकर हैं।
  • अग्निमांद्य उदर रोगों की जड़ है। उसे दूर करने के लिए पाचन दीपन औषधियों से मिश्रित स्वादिष्ट हलका भोजन समय- समय पर दें।
  • बीच-बीच में पेट की सफाई के लिए हलका दस्तावर चूर्ण आदि दें।
  • अतिसार प्रवाहिका में अनार का रस अच्छा लाभ करता है।
  • क्षारीय पदार्थों का सेवन सभी प्रकार के शूलों में लाभकारी होता है।
  • परिणाम शूल व अम्लपित्त में आंवले को छोड़कर कोई खट्टी वस्तु खाने को न दें।
  • सभी शूलों में चावल खाना बंद कर दें।
  • बासी अन्न, भारी पदार्थ, अधिक भोजन, बार-बार भोजन, रात्रि जागरण, अधिक परिश्रम, चिंता व फास्ट फूड का सेवन सभी उदर रोगों में हानिकार है।
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